मंजिलें बहती रहीं और रास्ते भटक गए।
फ़ना होना था हमें कहीं ज़िन्दगी की खातिर, न था सोचा की सस्ति होती है सांसे,छूटे जो तेरी आरज़ू को, न रूकती, न थमती हमारी साँसे,न वोह ज़िक्र रहा हमारी उन नज़मों में,न रही कोई भी रूह उसमे,जो न लिखी गयी तेरे दायरे में,जो न पढ़ी गयी रहके तेरे बहते खयालो में.
आते जब भी कभी तेरे इत्तफाक से हम इस मोड़ पे तो,सोचते कैसी रही हमारी वोह कभी, कोई, किसी तरह की मुलाकातें,ज़िन्दगी बीत गयी तेरी ताजगी को महसूस करते करते,हो गए हम सफ़ेद सर वाले, शायद येही थी तेरी प्यारी मन्नतें.
याद आता हैं हमें वोह तेरा बेहेकना,जब होती थी बारिश कभी, दर पे हम रहते थे तेरे,सोचा होगा शायद हमने इतना,न थी तेरी आदत किसी मैखाने से,पाक साफ़ थी तू कभी, जो कभी हम बन न सके,आज दायरे गिनते हैं अपनी उंगलियों के,होते थे कभी वोह भी तेरे जैसे।
बोहोत लोग आये कारवां भी देखे तुने कई गुज़रते हुए,न रुका कोई तेरे वास्ते,न थी तमन्ना किसी को तेरे लिए,डाले किसइ ने फूल, तो दाल दिए दौलत के गिनके सबूत तुजमें,न आया दिल में खौफ किसी को,न थी तेरी पाक साफ़ रूह बिकने के लिए.यकीं इतना तो था हमें तेरे आमिर पहलूँ में जो थी ताकत,हे तू इतनी काबिल, दिल कहता हे मेरा,नहीं कर सकता कोई उस ऊपर वाले को समां अपने में,शायद वोह भी आना चाहते हे और डूब जाना चाहते हे तुजमे,वोही एक रास्ता होता होगा उनके लिए भी,साबित करें हम में अपनी रूहानियत कभी।
कहा था किसी शायर ने या किसी पागल ने कभी,देखके तेरे नसीब की हालत को ही शायद,दिल उसका भी रोया होगा यूँ ही,की,
'रास्ते बनते गए और कारवां गुज़रता गया.'
आज हम भी शायद अपनी उमरे दराज़ से पागल होंगे,या हो ही जायेंगे,
न हमें गम हे इसका,पर इतना तेरे लिए ए मेरी पाक दोस्त,ज़रूर दिल खोलेंगे,की,'मंजिलें बहती गयी और रास्ते भटक गए,हट गया हे हर कोई अपने मुकद्दर से,न शर्म रही किसी में न हे सुलूक अपनी किस्मत से,नहीं याद हमे तेरी ऐसी हालाते बयां कहीं पे,सही हे कहीं न कहीं, पर,की,मंजिलें बहती रही और हम सब तुजसे किनारा कर गए,तेरी मंजिलों पे कोई कारवां न रूका,न कोई तेरा दर्द बाँट सके,तेरे लिए,मंजिलें बहती रहीं और रास्ते भटक गए,रास्ते भटक गए,रास्ते मिट गए, हमेशा के लिए शायद,रास्ते थे ही नहीं..............
फ़ना होना था हमें कहीं ज़िन्दगी की खातिर, न था सोचा की सस्ति होती है सांसे,छूटे जो तेरी आरज़ू को, न रूकती, न थमती हमारी साँसे,न वोह ज़िक्र रहा हमारी उन नज़मों में,न रही कोई भी रूह उसमे,जो न लिखी गयी तेरे दायरे में,जो न पढ़ी गयी रहके तेरे बहते खयालो में.
आते जब भी कभी तेरे इत्तफाक से हम इस मोड़ पे तो,सोचते कैसी रही हमारी वोह कभी, कोई, किसी तरह की मुलाकातें,ज़िन्दगी बीत गयी तेरी ताजगी को महसूस करते करते,हो गए हम सफ़ेद सर वाले, शायद येही थी तेरी प्यारी मन्नतें.
याद आता हैं हमें वोह तेरा बेहेकना,जब होती थी बारिश कभी, दर पे हम रहते थे तेरे,सोचा होगा शायद हमने इतना,न थी तेरी आदत किसी मैखाने से,पाक साफ़ थी तू कभी, जो कभी हम बन न सके,आज दायरे गिनते हैं अपनी उंगलियों के,होते थे कभी वोह भी तेरे जैसे।
बोहोत लोग आये कारवां भी देखे तुने कई गुज़रते हुए,न रुका कोई तेरे वास्ते,न थी तमन्ना किसी को तेरे लिए,डाले किसइ ने फूल, तो दाल दिए दौलत के गिनके सबूत तुजमें,न आया दिल में खौफ किसी को,न थी तेरी पाक साफ़ रूह बिकने के लिए.यकीं इतना तो था हमें तेरे आमिर पहलूँ में जो थी ताकत,हे तू इतनी काबिल, दिल कहता हे मेरा,नहीं कर सकता कोई उस ऊपर वाले को समां अपने में,शायद वोह भी आना चाहते हे और डूब जाना चाहते हे तुजमे,वोही एक रास्ता होता होगा उनके लिए भी,साबित करें हम में अपनी रूहानियत कभी।
कहा था किसी शायर ने या किसी पागल ने कभी,देखके तेरे नसीब की हालत को ही शायद,दिल उसका भी रोया होगा यूँ ही,की,
'रास्ते बनते गए और कारवां गुज़रता गया.'
आज हम भी शायद अपनी उमरे दराज़ से पागल होंगे,या हो ही जायेंगे,
न हमें गम हे इसका,पर इतना तेरे लिए ए मेरी पाक दोस्त,ज़रूर दिल खोलेंगे,की,'मंजिलें बहती गयी और रास्ते भटक गए,हट गया हे हर कोई अपने मुकद्दर से,न शर्म रही किसी में न हे सुलूक अपनी किस्मत से,नहीं याद हमे तेरी ऐसी हालाते बयां कहीं पे,सही हे कहीं न कहीं, पर,की,मंजिलें बहती रही और हम सब तुजसे किनारा कर गए,तेरी मंजिलों पे कोई कारवां न रूका,न कोई तेरा दर्द बाँट सके,तेरे लिए,मंजिलें बहती रहीं और रास्ते भटक गए,रास्ते भटक गए,रास्ते मिट गए, हमेशा के लिए शायद,रास्ते थे ही नहीं..............
उमीदे बयां - मोहमद जहीर शैख़ ( र२)